Subhash Ghai Exclusive: हां, मैंने 'युवराज' में जल्दबाजी की, जब बुद्धि प्रोजेक्ट बनाने की हो गई तो झूठ क्यों…
अदाकारी की मिसाल रहे अभिनेता दिलीप कुमार को तीन फिल्मों में निर्देशित करने वाले इकलौते निर्देशक सुभाष घई की दिली तमन्ना अमिताभ बच्चन और शबाना आजमी संग फिल्म बनाने की रही है। सलमान खान की फिल्म 'युवराज' को लेकर उन्हें अपराध बोध भी सताता रहता है। इन दिनों फिर से फिल्म निर्देशन में सक्रिय हुए सुभाष घई छोटे परदे के लिए एक नायाब कहानी पर नया धारावाहिक 'जानकी' भी दूरदर्शन पर ले आए हैं। उनकी हिट फिल्म 'खलनायक' की सीक्वल की चर्चाओं के बीच 'अमर उजाला' के सलाहकार संपादक पंकज शुक्ल ने की निर्माता-निर्देशक सुभाष घई से ये एक्सक्लूसिव मुलाकात।
आपकी फिल्मों में महिला किरदारों के जरिये जो बात कही जाती है, उसकी तरफ लोगों का ध्यान कम ही जाता है, ऐसा क्यों?
देखिए न, 'खलनायक' को तीस साल हो गए। मैं लोगों से पूछता हूं कि इसे क्यों पसंद करते हैं? कोई कहता है बल्लू बलराम का किरदार, किसी को चोली के पीछे का गाना या किसी को फिल्म का मनोरंजन तत्व पसंद आता है। मुझे दुख होता है। 'खलनायक' की कहानी बल्लू बलराम की कहानी नहीं है। ये एक मां की कहानी है। फिल्म में जगजीत सिंह का गाया एक गाना है, 'ओ मां तुझे सलाम, तेरे बच्चे प्यारे तुझको, रावण हो या राम..! हम सबको लगता था कि ये गाना सबसे बड़ा हिट होगा। लेकिन, लोगों का ध्यान 'चोली के पीछे क्या है' पर गया। फिल्म के अंतिम दृश्यों में एक जगह जिस वक्त मां से पूछा जाता है कि आपका बेटा कैसा दिखता है तो चर्च में मौजूद मां जीसस क्राइस्ट की तरफ इशारा करती है। आप सोचिए। जो दर्द की बातें थी वे कहीं निकल गईं। मुझे इस बात का रंज नहीं है लेकिन बार बार जब लोग फिल्म देखते हैं तो फिर उनको मां की वेदना भी तो अच्छी लगी तभी तो फिल्म अच्छी लगी।
एक लेखक का जो योगदान सिनेमा में रहा करता था, वैसा लेखन अब क्यों नहीं दिखता है सिनेमा में?
कहानियों को सुनने वाली पीढ़ी बदल गई है। जब हम गुड मॉर्निंग को जीएम लिखते हैं तो धैर्य कहां रहा? अब बताइए ना मुझे कि कितने प्रेमचंद या कितने टैगोर आ गए हाल के बरसों में। मीडिया भी 70 और 80 के दशकों में सिनेमा को आखिरी पेज पर जगह देता था। अब वह पहले पन्ने का आइटम है। अब हीरोइन का नीली साड़ी पहन कर निकलना या हीरो का काली शर्ट पहनकर निकलना भी खबर है। ये कोई खबर है। ये चुटकुलों की दुनिया है। जो गहराई वाले लेखक थे वे इंसान के दर्द को, वेदना को, काव्य को समझते थे, भाषा को समझते थे, साहित्य पढ़ते थे। आज के बच्चे तो पढ़ते ही नहीं हैं। उनको तो ये भी पता नहीं होता कि राम के पिता का नाम क्या था?
कहीं पढ़ा मैंने कि अगर आपको किसी फिल्म का रीमेक बनाने का मौका मिले तो आपकी पसंद 'एमेडियस' होगी। मोजार्ट और सेलिएरी की इस कहानी के हिंदी संस्करण को आप किन दो संगीतकारों की प्रतिस्पर्धा पर केंद्रित करते?
मैं लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल वाले प्यारेलाल और पंचम (आर डी बर्मन) को केंद्र में रखकर ये फिल्म बनाता। ये ऐसे लोग हैं जो संगीत को अपनी सांस समझते हैं। जीते हैं इसे। जैसे आपकी दो मिनट सांस रुक जाए आप बेचैन हो जाएंगे। इनका दो मिनट का सृजन रुक जाए तो ये बेचैन हो जाते हैं।
शुरू के दिनों में आपने अपनी फिल्मों के संगीत को लेकर खूब प्रयोग किए। पहली फिल्म में कल्याणजी आनंद जी, दूसरी में राजेश रोशन आ गए फिर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से तो लंबे समय तक जुड़े रहे..
मैं हरेक से सीखना चाहता था। आपने जो नाम लिए उनके अलावा नदीम श्रवण, अनु मलिक से भी। सबका काम करने का तरीका अलग अलग है। मैं सबसे संगीत सीखना चाहता था। ये सब गुणी लोग हैं। अब तो ए आर रहमान को भी लोग मोजार्ट कहते हैं। उनकी अंतरराष्ट्रीय संगीत की जो समझ है, विश्व संगीत को भारत लाकर जो उन्होंने रचा है वह बहुत अच्छा है। भारतीय शास्त्रीय संगीत, कर्नाटक शास्त्रीय संगीत हर तरह के संगीत का उनको ज्ञान है। मैंने इन सबसे संगीत सीखा है। इसी का नतीजा रहा कि कोरोना संक्रमण काल में तो खुद मैंने 25-26 गाने बना दिए। अब तो तकनीक इतनी आसान हो गई कि बाजे पर हाथ रख दो, बाजा खुद बजने लगता है। संगीतकार बनना भी आसान हो गया है।
अब दौर सिंथेसाइजर पर संगीत बनाने का है, लेकिन आपकी फिल्मों में तो लाइव ऑर्केस्ट्रा के साथ रिकॉर्डिंग होती रही है, उन दिनों की कुछ यादें?
दो किस्से मैं आपको बताता हूं एक तो वह गाना 'ओ रामजी, बड़ा दुख दीना'। उसके अंदर हमारे पास 126 म्यूजीशियन थे एक हॉल में। रिकॉर्डिंग चली सुबह 10 से लेकर रात के 12 बजे तक। बहुत विशाल गाना था, 'बड़ा दुख दीना'। और, एक दूसरा गाना था 'हीरो' का, 'लंबी जुदाई'। उसके अंदर सिर्फ 16 म्यूजीशियन थे। आप सोचिए कहां 126 म्यूजीशियन और कहां सिर्फ 16 और दोनों में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल। मैंने प्यारेलाल जी से पूछा कि आज म्यूजीशियन नहीं है बड़ा खाली खाली हाल लग रहा है। उन्होंने जवाब दिया कि ये स्वर प्रधान गीत है. गायन प्रधान गीत है। ये संगीत प्रधान नहीं है।
फिल्म 'राम लखन' के गाने की बात आपने छेड़ी तो इसका एक किस्सा ये भी तो है कि इसके गाने 'एजी ओजी लो जी सुनो जी' में सिर्फ थाप वाले वाद्य यंत्रों (परकशन) का ही प्रयोग किया गया है। कहते हैं कि उसमें धुन बजाने वाले कलाकार चाय पीने चले गए थे और कुछ तंज भी उन्होंने कसा जिसके बाद प्यारेलाल ने ये गाना बिना उनके ही रिकॉर्ड कर लिया?
हां, ऐसा था। होता था ऐसा। एक बड़े अच्छे म्यूजीशियन थे उनको शायद लगा होगा कि मैं चाय पीने आया हूं तो मेरा इंतजार कर लेंगे। करते भी थे हम लोग। लेकिन कभी कभी बात स्वाभिमान की आ जाती है। सृजन करने वाले और उसे करके दिखाने वाले में एक तनातनी चलती रहती है। उस दिन भी हुआ ऐसा। प्यारेलाल जी तो हर चीज को चुनौती के रूप में लेते हैं। उनका मानना था, कोई आया नहीं आया, मेरा तो संगीत रहेगा। निर्भर नहीं रहूंगा मैं किसी पर संगीत के बारे में। इस गाने में 78 थाप वाले वाद्य यंत्र बजते सुनाई देते हैं। पूरे गाने में सिर्फ रिदम है।
अभिनेता दिलीप कुमार के साथ आपने तीन फिल्में की हैं। उनसे पहली मुलाकात का अनुभव जानना है आपसे?
मेरे अलावा किसी निर्देशक के साथ उन्होंने तीन फिल्में नहीं कीं। फिल्म 'कर्ज' तब तक मैं बना चुका था। एक मित्र के जरिये मैंने उन्हें संदेश भिजवाया। उनका बुलावा आया तो मैं उनसे मिला। आपको तो मालूम ही है कि उनका हाथ मिलाने का तरीका कैसा होता था। उसमें एक स्नेह और एक प्रेम होता है। मैंने उनको जब कहानी सुनाई तो वह थोड़ी देर रुके। सोचा कहानी को मन ही मन में। फिर सिर हिलाकर बोले, अच्छी कहानी है। दादा पोते की कहानी थी कि एक दादा अपने पोते को बड़ा करने के लिए क्रिमिनल बन जाता है। और, फि पोता बड़ा होकर दादा से सवाल करता है कि तुम क्रिमिनल क्यों बने?
1976 में रिलीज फिल्म 'कालीचरण' से गिनती करें तो तीन साल बाद आपको फिल्म निर्देशन करते 50 साल हो जाएंगे। इस पूरी यात्रा में कभी किसी फिल्म को लेकर आपको लगता है कि उसमें आपने जल्दबाजी कर दी?
मैं समझता हूं कि फिल्म 'युवराज' मुझे रोककर बनानी चाहिए थी। कुछ फिल्में आप जोश में बना लेते हैं। सलमान का फोन आया कि चलो सुभाष जी एक पिक्चर करते हैं। उस वक्त हम प्रोजेक्ट बनाने लग जाते हैं, सिनेमा कहीं हाशिये पर हो जाता है। कॉरपोरेट संस्कृति सिनेमा में आ चुकी थी। पहले कभी मेरी सोच ऐसी नहीं थी। 'ताल' तक तो नहीं थी। लेकिन, 'युवराज' में हो गई ऐसी। जब बुद्धि प्रोजेक्ट बनाने की हो गई तो झूठ क्यों कहें। सलमान ने जो मुझे डेट्स दी थी उसी में बनानी थी फिल्म। मैंने कहा भी कि मुझे चार महीने और चाहिए स्क्रिप्ट पर काम करने के लिए लेकिन सलमान की वही डेट्स खाली थीं। वह फिल्म मैंने दो महीने पहले शुरू कर दी, बिना पटकथा को दोहराए हुए। आप यकीन नहीं करेंगे जिस दिन ये फिल्म रिलीज होनी थी उसके पांच दिन पहले मैं फिल्म का बैकग्राउंड कर रहा था। देखी भी नहीं मैंने ये पिक्चर तो फिल्म जब आई थिएटर में तो बहुत लंबी थी। कभी कभी ऐसा होता है आपके साथ।
और, इन दिनों जो आपकी सक्रियता है?
अभी जो नौ साल से मैं कोई पिक्चर नहीं बना रहा हूं तो उसकी वजह यही है कि कारोबार इन दिनों कला पर हावी हो गया है। इसी कारोबारी गणित ने सितारों को चोटी पर पहुंचा दिया है और निर्देशकों को पीछे कर दिया है। मैं वहां हूं जहां निर्देशकों को मान्यता देते थे। दक्षिण भारतीय सिनेमा में आज भी निर्देशकों को प्राथमिकता देते हैं।
और आखिरी सवाल अमिताभ बच्चन को लेकर। उनके साथ आपने एक फिल्म शुरू भी की थी। अब अगर कोई उनकी शख्सियत के मुताबिक कहानी मिले तो..?
आप मुझसे पूछ ही रहे हैं तो मेरे जीवन में अगर कभी किसी कलाकार के साथ काम करने की इच्छा अब भी शेष हैं तो वह दो कलाकार हैं एक शबाना आजमी और दूसरे अमिताभ बच्चन। शबाना तो इस बात का ताना भी देती रही हैं कि तुम बस कहते रहते हो फिल्म मे तो लेते नहीं। मैं इनके लिए वैसी फिल्म लिखना चाहता हूं जैसा किरदार इन्होंने पहले किया ही नहीं हो। यह मेरा ही दुर्भाग्य रहा कि अमिताभ बच्चन के साथ प्रस्तावित मेरी फिल्म शुरू नहीं सकी। इनके साथ मैं ऐसी कहानी पर काम करना चाहता हूं जहां उनको भी लगे कि बतौर कलाकार उनके जीवन में मैंने कोई योगदान किया है।
Source : Amar Ujala
आपकी फिल्मों में महिला किरदारों के जरिये जो बात कही जाती है, उसकी तरफ लोगों का ध्यान कम ही जाता है, ऐसा क्यों?
देखिए न, 'खलनायक' को तीस साल हो गए। मैं लोगों से पूछता हूं कि इसे क्यों पसंद करते हैं? कोई कहता है बल्लू बलराम का किरदार, किसी को चोली के पीछे का गाना या किसी को फिल्म का मनोरंजन तत्व पसंद आता है। मुझे दुख होता है। 'खलनायक' की कहानी बल्लू बलराम की कहानी नहीं है। ये एक मां की कहानी है। फिल्म में जगजीत सिंह का गाया एक गाना है, 'ओ मां तुझे सलाम, तेरे बच्चे प्यारे तुझको, रावण हो या राम..! हम सबको लगता था कि ये गाना सबसे बड़ा हिट होगा। लेकिन, लोगों का ध्यान 'चोली के पीछे क्या है' पर गया। फिल्म के अंतिम दृश्यों में एक जगह जिस वक्त मां से पूछा जाता है कि आपका बेटा कैसा दिखता है तो चर्च में मौजूद मां जीसस क्राइस्ट की तरफ इशारा करती है। आप सोचिए। जो दर्द की बातें थी वे कहीं निकल गईं। मुझे इस बात का रंज नहीं है लेकिन बार बार जब लोग फिल्म देखते हैं तो फिर उनको मां की वेदना भी तो अच्छी लगी तभी तो फिल्म अच्छी लगी।
एक लेखक का जो योगदान सिनेमा में रहा करता था, वैसा लेखन अब क्यों नहीं दिखता है सिनेमा में?
कहानियों को सुनने वाली पीढ़ी बदल गई है। जब हम गुड मॉर्निंग को जीएम लिखते हैं तो धैर्य कहां रहा? अब बताइए ना मुझे कि कितने प्रेमचंद या कितने टैगोर आ गए हाल के बरसों में। मीडिया भी 70 और 80 के दशकों में सिनेमा को आखिरी पेज पर जगह देता था। अब वह पहले पन्ने का आइटम है। अब हीरोइन का नीली साड़ी पहन कर निकलना या हीरो का काली शर्ट पहनकर निकलना भी खबर है। ये कोई खबर है। ये चुटकुलों की दुनिया है। जो गहराई वाले लेखक थे वे इंसान के दर्द को, वेदना को, काव्य को समझते थे, भाषा को समझते थे, साहित्य पढ़ते थे। आज के बच्चे तो पढ़ते ही नहीं हैं। उनको तो ये भी पता नहीं होता कि राम के पिता का नाम क्या था?
कहीं पढ़ा मैंने कि अगर आपको किसी फिल्म का रीमेक बनाने का मौका मिले तो आपकी पसंद 'एमेडियस' होगी। मोजार्ट और सेलिएरी की इस कहानी के हिंदी संस्करण को आप किन दो संगीतकारों की प्रतिस्पर्धा पर केंद्रित करते?
मैं लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल वाले प्यारेलाल और पंचम (आर डी बर्मन) को केंद्र में रखकर ये फिल्म बनाता। ये ऐसे लोग हैं जो संगीत को अपनी सांस समझते हैं। जीते हैं इसे। जैसे आपकी दो मिनट सांस रुक जाए आप बेचैन हो जाएंगे। इनका दो मिनट का सृजन रुक जाए तो ये बेचैन हो जाते हैं।
शुरू के दिनों में आपने अपनी फिल्मों के संगीत को लेकर खूब प्रयोग किए। पहली फिल्म में कल्याणजी आनंद जी, दूसरी में राजेश रोशन आ गए फिर लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से तो लंबे समय तक जुड़े रहे..
मैं हरेक से सीखना चाहता था। आपने जो नाम लिए उनके अलावा नदीम श्रवण, अनु मलिक से भी। सबका काम करने का तरीका अलग अलग है। मैं सबसे संगीत सीखना चाहता था। ये सब गुणी लोग हैं। अब तो ए आर रहमान को भी लोग मोजार्ट कहते हैं। उनकी अंतरराष्ट्रीय संगीत की जो समझ है, विश्व संगीत को भारत लाकर जो उन्होंने रचा है वह बहुत अच्छा है। भारतीय शास्त्रीय संगीत, कर्नाटक शास्त्रीय संगीत हर तरह के संगीत का उनको ज्ञान है। मैंने इन सबसे संगीत सीखा है। इसी का नतीजा रहा कि कोरोना संक्रमण काल में तो खुद मैंने 25-26 गाने बना दिए। अब तो तकनीक इतनी आसान हो गई कि बाजे पर हाथ रख दो, बाजा खुद बजने लगता है। संगीतकार बनना भी आसान हो गया है।
अब दौर सिंथेसाइजर पर संगीत बनाने का है, लेकिन आपकी फिल्मों में तो लाइव ऑर्केस्ट्रा के साथ रिकॉर्डिंग होती रही है, उन दिनों की कुछ यादें?
दो किस्से मैं आपको बताता हूं एक तो वह गाना 'ओ रामजी, बड़ा दुख दीना'। उसके अंदर हमारे पास 126 म्यूजीशियन थे एक हॉल में। रिकॉर्डिंग चली सुबह 10 से लेकर रात के 12 बजे तक। बहुत विशाल गाना था, 'बड़ा दुख दीना'। और, एक दूसरा गाना था 'हीरो' का, 'लंबी जुदाई'। उसके अंदर सिर्फ 16 म्यूजीशियन थे। आप सोचिए कहां 126 म्यूजीशियन और कहां सिर्फ 16 और दोनों में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल। मैंने प्यारेलाल जी से पूछा कि आज म्यूजीशियन नहीं है बड़ा खाली खाली हाल लग रहा है। उन्होंने जवाब दिया कि ये स्वर प्रधान गीत है. गायन प्रधान गीत है। ये संगीत प्रधान नहीं है।
फिल्म 'राम लखन' के गाने की बात आपने छेड़ी तो इसका एक किस्सा ये भी तो है कि इसके गाने 'एजी ओजी लो जी सुनो जी' में सिर्फ थाप वाले वाद्य यंत्रों (परकशन) का ही प्रयोग किया गया है। कहते हैं कि उसमें धुन बजाने वाले कलाकार चाय पीने चले गए थे और कुछ तंज भी उन्होंने कसा जिसके बाद प्यारेलाल ने ये गाना बिना उनके ही रिकॉर्ड कर लिया?
हां, ऐसा था। होता था ऐसा। एक बड़े अच्छे म्यूजीशियन थे उनको शायद लगा होगा कि मैं चाय पीने आया हूं तो मेरा इंतजार कर लेंगे। करते भी थे हम लोग। लेकिन कभी कभी बात स्वाभिमान की आ जाती है। सृजन करने वाले और उसे करके दिखाने वाले में एक तनातनी चलती रहती है। उस दिन भी हुआ ऐसा। प्यारेलाल जी तो हर चीज को चुनौती के रूप में लेते हैं। उनका मानना था, कोई आया नहीं आया, मेरा तो संगीत रहेगा। निर्भर नहीं रहूंगा मैं किसी पर संगीत के बारे में। इस गाने में 78 थाप वाले वाद्य यंत्र बजते सुनाई देते हैं। पूरे गाने में सिर्फ रिदम है।
अभिनेता दिलीप कुमार के साथ आपने तीन फिल्में की हैं। उनसे पहली मुलाकात का अनुभव जानना है आपसे?
मेरे अलावा किसी निर्देशक के साथ उन्होंने तीन फिल्में नहीं कीं। फिल्म 'कर्ज' तब तक मैं बना चुका था। एक मित्र के जरिये मैंने उन्हें संदेश भिजवाया। उनका बुलावा आया तो मैं उनसे मिला। आपको तो मालूम ही है कि उनका हाथ मिलाने का तरीका कैसा होता था। उसमें एक स्नेह और एक प्रेम होता है। मैंने उनको जब कहानी सुनाई तो वह थोड़ी देर रुके। सोचा कहानी को मन ही मन में। फिर सिर हिलाकर बोले, अच्छी कहानी है। दादा पोते की कहानी थी कि एक दादा अपने पोते को बड़ा करने के लिए क्रिमिनल बन जाता है। और, फि पोता बड़ा होकर दादा से सवाल करता है कि तुम क्रिमिनल क्यों बने?
1976 में रिलीज फिल्म 'कालीचरण' से गिनती करें तो तीन साल बाद आपको फिल्म निर्देशन करते 50 साल हो जाएंगे। इस पूरी यात्रा में कभी किसी फिल्म को लेकर आपको लगता है कि उसमें आपने जल्दबाजी कर दी?
मैं समझता हूं कि फिल्म 'युवराज' मुझे रोककर बनानी चाहिए थी। कुछ फिल्में आप जोश में बना लेते हैं। सलमान का फोन आया कि चलो सुभाष जी एक पिक्चर करते हैं। उस वक्त हम प्रोजेक्ट बनाने लग जाते हैं, सिनेमा कहीं हाशिये पर हो जाता है। कॉरपोरेट संस्कृति सिनेमा में आ चुकी थी। पहले कभी मेरी सोच ऐसी नहीं थी। 'ताल' तक तो नहीं थी। लेकिन, 'युवराज' में हो गई ऐसी। जब बुद्धि प्रोजेक्ट बनाने की हो गई तो झूठ क्यों कहें। सलमान ने जो मुझे डेट्स दी थी उसी में बनानी थी फिल्म। मैंने कहा भी कि मुझे चार महीने और चाहिए स्क्रिप्ट पर काम करने के लिए लेकिन सलमान की वही डेट्स खाली थीं। वह फिल्म मैंने दो महीने पहले शुरू कर दी, बिना पटकथा को दोहराए हुए। आप यकीन नहीं करेंगे जिस दिन ये फिल्म रिलीज होनी थी उसके पांच दिन पहले मैं फिल्म का बैकग्राउंड कर रहा था। देखी भी नहीं मैंने ये पिक्चर तो फिल्म जब आई थिएटर में तो बहुत लंबी थी। कभी कभी ऐसा होता है आपके साथ।
और, इन दिनों जो आपकी सक्रियता है?
अभी जो नौ साल से मैं कोई पिक्चर नहीं बना रहा हूं तो उसकी वजह यही है कि कारोबार इन दिनों कला पर हावी हो गया है। इसी कारोबारी गणित ने सितारों को चोटी पर पहुंचा दिया है और निर्देशकों को पीछे कर दिया है। मैं वहां हूं जहां निर्देशकों को मान्यता देते थे। दक्षिण भारतीय सिनेमा में आज भी निर्देशकों को प्राथमिकता देते हैं।
और आखिरी सवाल अमिताभ बच्चन को लेकर। उनके साथ आपने एक फिल्म शुरू भी की थी। अब अगर कोई उनकी शख्सियत के मुताबिक कहानी मिले तो..?
आप मुझसे पूछ ही रहे हैं तो मेरे जीवन में अगर कभी किसी कलाकार के साथ काम करने की इच्छा अब भी शेष हैं तो वह दो कलाकार हैं एक शबाना आजमी और दूसरे अमिताभ बच्चन। शबाना तो इस बात का ताना भी देती रही हैं कि तुम बस कहते रहते हो फिल्म मे तो लेते नहीं। मैं इनके लिए वैसी फिल्म लिखना चाहता हूं जैसा किरदार इन्होंने पहले किया ही नहीं हो। यह मेरा ही दुर्भाग्य रहा कि अमिताभ बच्चन के साथ प्रस्तावित मेरी फिल्म शुरू नहीं सकी। इनके साथ मैं ऐसी कहानी पर काम करना चाहता हूं जहां उनको भी लगे कि बतौर कलाकार उनके जीवन में मैंने कोई योगदान किया है।
Source : Amar Ujala